निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को ‘भक्तियोग’ कहते हैं। इस खोज का आरंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। … ”भगवान् के प्रति उत्कट प्रेम ही भक्ति है।
जब प्रेम का यह उच्चतम आदर्श प्राप्त हो जाता है, तो ज्ञान फिर न जाने कहाँ चला जाता है। तब भला ज्ञान की इच्छा भी कौन करे? तब तो मुक्ति, उद्धार, निर्वाण की बातें न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं। इस दैवी प्रेम में छके रहने से फिर भला कौन मुक्त होना चाहेगा? ”प्रभो! मुझे धन, जन, सौन्दर्य, विद्या, यहाँ तक कि मुक्ति भी नहीं चाहिए। बस इतनी ही साध है कि जन्म जन्म में तुम्हारे प्रति मेरी अहैतुकी भक्ति बनी रहे।” भक्त कहता है, ”मैं शक्कर हो जाना नहीं चाहता, मुझे तो शक्कर खाना अच्छा लगता है।” तब भला कौन मुक्त हो जाने की इच्छा करेगा? कौन भगवान के साथ एक हो जाने की कामना करेगा? भक्त कहता है, ”मैं जानता हूँ कि वे और मैं दोनों एक हैं, पर तो भी मैं उनसे अपने को अलग रखकर उन प्रियतम का सम्भोग करूँगा।” प्रेम के लिए प्रेम – यही भक्त का सर्वोच्च सुख है
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अनुक्रम
- प्रार्थना
- भक्ति के लक्षण
- ईश्वर का स्वरूप
- भक्तियोग का ध्येय-प्रत्यक्षानुभूति
- गुरु की आवश्यकता
- गुरु और शिष्य के लक्षण
- अवतार
- मंत्र
- प्रतीक तथा प्रतिमा-उपासना
- इष्टनिष्ठा
- भक्ति के साधन
- पराभक्ति-त्याग
- भक्त का वैराग्य-प्रेमजन्य
- भक्तियोग की स्वाभाविकता और उसका रहस्य
- भक्ति के अवस्था-भेद
- सार्वजनीन प्रेम
- पराविद्या और पराभक्ति दोनों एक हैं
- प्रेम-त्रिकोणात्मक
- प्रेममय भगवान् स्वयं अपना प्रमाण हैं
- दैवी प्रेम की मानवी विवेचना
- उपसंहार
इस पुस्तक के लेखक

स्वामी विवेकानंद / Swami Vivekananda
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेंद्रनाथ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवीजी धामर्क विचारों की महिला थीं। बचपन से ही नरेंद्र अत्यंत कुशाग्र बुद्ध के और नटखट थे। परिवार के धामर्क एवं आध्यात्मक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेंद्र के मन में बचपन से ही धमर् एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। पाँच वर्ष की आयु में ही बड़ों की तरह सोचने, व्यवहार करनेवाला तथा अपने विवेक से हर जानकारी की विवेचना करनेवाला यह विलक्षण बालक सदैव अपने आस-पास घटित होनेवाली घटनाओं के बारे में सोचकर स्वयं निष्कर्ष निकालता रहता था। नरेंद्र ने श्रीरामकृष्णदेव को अपना गुरु मान लिया था। उसके बाद एक दिन उन्होंने नरेंद्र को संन्यास की दीक्षा दे दी। उसके बाद गुरु ने अपनी संपूर्ण शक्तियाँ अपने नवसंन्यासी शिष्य स्वामी विवेकानंद को सौंप दीं, ताकि वह विश्व-कल्याण कर भारत का नाम गौरवान्वत कर सके। 4 जुलाई, 1902 को यह महान् तपस्वी अपनी इहलीला समाप्त कर परमात्मा में विलीन हो गया।